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बूटों की ठक ठक पर पायल की झनक झनक…… भाग 2

दिल की बात
दिल की बात
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जिस बिल्डिंग में हम रहते थे उसके सामने वाली बिल्डिंग में एक अंकल थे, शारीरिक रूप से बड़े ही रौबदार, हष्टपुष्ट हाँ बच्चे उनको देखते ही डर जाते थे| ना जाने क्या कारण था? एसा नही है कि किसी बच्चे को उन्होने कभी किसी बात पर टोका टाकि की हो, या किसी गलती पर मारा हो, उनके खुद के बच्चे भी उनसे बहुत डरते थे| एक दिन उनको बड़े जोरो का बुखार हुआ, दवाई दिलवाकर आंटी जी जब उनको घर ला रही थी तो यूं ही मेरी माताजी ने पूछ लिया, – “क्या हुआ बहनजी?” तो आंटी जी बोली, “क्या कहूँ? ये कल देर रात आये थे, घर में आने से पहले यहाँ उस खंबे के पास पेशाब करने लगे, ना जाने क्या हुआ पेशाब करते करते शरीर में एक झुँझिनी सी छूटी, इनको तो घर लेना मुश्किल हो गया| सारी रात बदन बुखार से तापता रहा|” पूछने पर बतलाया, – “यहाँ कब्रिस्तान में एक क़ब्र से पास से कुछ सफेद सा उठा और बढ़ता बढ़ता आसमान छुने लगा|” उन अंकल का कई दिन बाद बुखार टूटा| बाद में अंकल ने अपने आने जाने का रास्ता भी बदल लिया| पहले वो अपने घर से दायीं और से जाते थे जो थोड़ा सा छोटा था| उस घटना के बाद वो बाई तरफ से जाने लगे| कब्रिस्तान उनकी बिल्डिंग के दायीं और था|

बचपन से ही अभिनय का मुझे बड़ा ही शौक था| या कहें कि फिल्मे देख देख कर अपने को कलाकार समझने लगा था| (कुछ नही करना पड़ता थोड़ी सा अभिनय ही तो करना है, और रुपयों के ढेर में खेलते हैं ये फिल्मी लोग|) सो अपने इस चाव को पूरा करने के लिये हमने पापड बेलने शुरु किये| पूरे परिवार में किसी को फिल्मो में कोई रुचि नही, दोस्तो में सिर्फ फिल्म देखने तक का ही चाव कुल मिलाकर इस रास्ते पर चला कैसे जाये इस बारे में सहायता करने वाला कोई नही| अखबारो के विज्ञापन देख देख, सच्चे झूठे ओफ़िसो के चक्कर काटता था| कई महीनो तक ठोकरे खाने के बाद मुझे एक ड्रामा कम्पनी मिली, उन्होने मुझे एक ड्रामे में एक छोटा सा रोल दिया, जमकर अभ्यास किया उस रोल का| नियत समय पर ड्रामा होना था, स्थान था बस अड्डे के पास गुजराती समाज का आदुटोरियम् या अवाने ग़ालिब (जहां तक याद आता है गुजराती समाज रहा होगा|)| वहाँ पर हमारे सपने चकना चूर हुए क्यूंकि नाच-गाने के सारे कार्यक्रम हुए किन्तु हमारा ड्रामा नही हुआ| हाँ फालतू में एक मैडल जरूर दे दिया गया| खैर जो हुआ सो हुआ सारा का सारा ड्रामा खत्म हुआ और हमने रात के लगभग 10:30 बजे उत्तम नगर तक एक बस खरीद ली (क्यूंकि उस समय दिल्ली कैन्ट तक कोई बस नही मिली थी|)| रात के समय सडको पर भीड़ कुछ कम थी और ड्राइवर साहब उस समय पायलेट हो चुके थे तो बस हवा में बाते कर रही थी, उस स्पीड से सामने सड़क के खड्डे भी अपनी जान बचाने को बस का रास्ता छोड़ रहे थे| इस ड्राइव से पहले जो थोड़ा बहुत खाया पिया था वो ना जाने किस कौने में चला गया| जब भी कोई स्टॉप आता तो यात्रियों के माथे अगली सीट से मुलाकात कर आते थे| खैर जैसे तैसे कर उत्तम नगर आया और 5 या 8 रुपये के घाटे में हमने वो बस बेच दी|

यहाँ से हमारे क्वाटरो की दूरी काफी थी, इतनी रात में वहाँ तक जाने का कोई साधन नही मिलना था सो अब मुफ्त की सवारी वाली अगली बस पकड़ी यानीकी 11 नंबर की बस (अरे भई पैदल यात्रा) उस वक्त लगभग 11:15 या 11:30 का समय हुआ होगा| अपने जीवन में पहली बार इतनी देर रात घर से बाहर था और वो भी अकेला| पैदल चलने में बड़ा मजा आ रहा था| खम्बो की रोशनी में हमारे साथ रहने वाली हमारी परछाई छोटी बड़ी �������ोती बड़ी ही अच्छी लग रही थी| भुला भटका, या काम के बोझ का मारा एक आध स��कूटर वाला पा������� से गुजरता तो अहसास होता की इतनी रात में मैं अकेला नही हूँ| पैदल और कुछ रात का समय होने के कारण हमारी 11 नंबर की बस थोड़ा सा तेज चाल रही थी| बीच बीच में आयोजकों द्वारा फालतू सम्मान (?) पर दिल ही दिल मे�� भड़ास भी निकल रही थी| कितनी जोरो की तैयारी की थी इस छोटे से रोल के लिये| बीच-बीच में याद आ रहा था वो लम्हा जब रिहर्सल के समय एक साथी महिला कलाकार की माँ ने हमे हमारा हुलिया और लहजा देख कर मद्रासी समझ लिया था| मन उस समय बड़ा ही प्रफुलित हुआ था| आज आयोजको का मौन बलात्कार देख कर बड़ी ही गलानि हुई| थोड़ी बहुत इधर उधर की उधेडबुन में जाने कब पंखा रोड खत्म हुई और रेलवे फाटक आगयी| अब तो एक्का दुक्का आने जाने वाले भी नही थे| फाटक के बाद खम्बो पर रोशनी की व्यवस्था नही के बराबर थी|

इसी रास्ते के एक किनारे पर शमशान था| शमशान से थोड़ा सा पहले हमारे क्वाटरों कि और मुड़ने वाला रास्ता था, जिस पर 10-15 कदम बाद ही एक पुलिया थी जो गन्दे नाले को पार करवाती थी| पुलिया से मैं अभी अच्छी खासी दूरी पर था किन्तु यहाँ से ऐसा महसूस हो रहा था कि पुलिया के पास कोई है| रह रह करउसके शरीर में कुछ हरकत हो रही है| वो कभी खड़ा हो जाता है तो कभी छिप जाता है| रात का समय होने के कारण कुछ सॉफ नही नज़र आ रहा था| किसी अन होनी की शंका के कारण मैं ठिठक गया और सोचा यहीं रुक कर इसके जाने का इंतजार करू| तो सड़क के किनारे रुक गया| थोड़ा सा लघुशंका का भी निवारण करने की इच्छा भी हो रही थी सो सोचा थोड़ा सा हल्का हो लिया जाये| जैसे ही मैने पैंट की चेन खोलने को अपने हाथ को हरकत में लाना चाहा तभी उन अंकल वाला प्रकरण याद आ गया और हाथ जहां था वही जड हो गया| अरे भाई मेरा घर अभी बहुत दूर है, उन अंकल का तो 10 कदम भी नही था| सो जिसकी इच्छा हो रही थी वो ना जाने कहाँ गायब हो गयी (जोरों की नही लगी थी, सो काम चल गया)| कुछ देर के इंतजार के बाद भी पुलिया वाला बंदा(?) वहाँ से नही हटा तो हिम्मत कर अपने कदम आगे बढ़ा दिये (सारी रात सड़क पर रुका भी तो नही जा सकता था, सो जो होगा देखा जायेगा वाली तर्ज पर)| ऐसे समय में जो सबसे पहले याद आता है वो ही मेरी जुबान (मन ही मन) पर स्वतः ही चल पड़ा, मतलब हनुमान चालीसा का पाठ| इससे एक संबल सा मिला की कोई तो साथ है| हाँ जो कदम उत्तम नगर से रेलवे फाटक तक शताब्दी की भांती चल रहे थे वो अब किसी पेशंजर ट्रेन की भांती हो गये थे बड़ी मुश्किल से एक एक पग आगे बढ रहा था, एक कारण तो था कि शायद कुछ समय और निकल जाये और पुलिया वाला (?) चला ही जाये| बीच बीच में ख्याल आता हाथ में लोहे का कड़ा भी नही है, क्यूंकि सुना था लोहे के पास भूत नही आते| बैल्ट बाँधने की आदत नही थी यदि कोई शरारती तत्व होता तो उसके सहारे मुकाबला किया जाता| विभिन्न शंकाओं के कारण हनुमान चालीसा में भी पूरी तरह मन नही लग रहा था, इसी उधड बुन से साथ ना जाने मैं कब पुलिया के पास पहुच गया|

लगातार भाग-3

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