Menu
blogid : 7644 postid : 624649

सच्ची कमाई …….

दिल की बात
दिल की बात
  • 52 Posts
  • 89 Comments

(रंजन आज बहुत ही परेशान था, किसी भी काम में उसका मन नही लग रहा था| रह रह कर मन में ख्याल आ रहा था, साला इस दुनिया में मैं पैदा ही क्यूं हुआ? रंजन बार बार अपने पापा को कोस रहा था, मन ही मन उनको गालियाँ दे रहा था, जब मुझे ठीक से पाल नही सकते थे, मेरी खवाहीशे पूरी नही कर सकते थे तो सिर्फ अपने मजे के लिये साला मुझे पैदा कर दिया| तभी रमण की आवाज ने उसके विचारो में खलल डाल दिया|)

रमण – “अरे रंजन! तू यहाँ क्या कर रहा है? आज तो पेपर है चलना नहीं है क्या?”

(रमण की बात का जवाब दिए बिना ही रंजन उसके पीछे मोटरसाइकल पर बैठ गया। ऐसा नही है रामशरण (रंजन के पिता) कमाते धमाते नही थे| वो एक सरकारी विभाग में क्लर्क थे| जिस कुर्सी पर थे वो मोटी मलाई की कुर्सी थी, किन्तु अपने संस्कार कहे या उनके खून में ईमानदारी के किटाणु कुछ ज्यादा थे, या फिर ए कहें कि उनको ए नौकरी ईमानदारी से बिना किसी रिश्वत के मिली थी जिसका वो इतना आभार मानते थे की यदि कोई उनको अपने काम के बदले कुछ मतलब एक प्याला चाय भी पिलाना चाहता तो उस चाय के पैसे भी वो अपने पल्ले से देते थे| क्यूंकि कुर्सी बड़ी महत्त्वपूर्ण थी सो लोगो का कुछ ज्यादा ही आना जाना लगा रहता था तो चाय-पानी का खर्चा बहुत होता था, इसी कारण तनख्वाह का एक अच्छा हिस्सा दफ्तर में ही खर्च हो जाता था| किन्तु रामशरण की पत्नी शान्ती उतने ही में घर खर्च चलाती थी| रंजन जब छोटा था तो उसकी कुछ इच्छा पूरी होती थी, लेकिन उतनी नही जितनी रमण की होती थी| रमण उसका कच्छा दोस्त (अंडरवियर फ्रेंड) था| रमण का पिता भी उसी ओहदे पर था जिस ओहदे पर रंजन का पिता था, लेकिन उनके बीच बड़ा अंतर था, जहाँ रंजन का पिता किसी से एक पैसा नहीं लेता थे वहीं रमण की पिता छोटे से छोटे काम के भी ऊपरी पैसे चार्ज करता था। यही एक कारण था जो रमण के पिता के पास एक बड़ा बांग्ला नुमा मकान था, जबकि रंजन के पिता के पास सिर्फ सरकारी क्वाटर था, रमण के पिता के पास स्कूटर से लेकर बड़ी कार थी, जबकि रंजन के पिता के पास एक साईकल और एक पुराना स्कूटर तो जो की उनको शादी के समय ससुराल से मिला था| रमण गर्मियों की छुट्टियों में घुमने जाता था और रंजन घर पर ही रहता था। मोटरसाइकल पर बैठे बैठे उसे रमण की किस्मत से जलन और अपनी किस्मत पर गुस्सा आ रहा था। एक ये साला रमण है जिन्दगी के मजे लूट रहा है और एक मैं हूँ एक एक चीज को तरसता रहता हूँ। लानत है ऐसे बाप पर जो …. इतनी मलाई वाली सिट होते हुए भी एक रुपया नहीं कमाता उलटे अपने पास से खर्च और कर देता है। इतना बड़ा हो चूका हूँ मैं आज तक एक भी ख्वाहिश पूरी नहीं की हमेशा रूपये न होने का रोना रो देता है। लेकिन आज तो रुपयों की भी बात नहीं थी सिर्फ इतना ही तो चाहा था मैं की आज के पेपर में मुझे कुछ नहीं आता, और परिक्षानियन्त्रक आपका जानकार है, उससे मेरी सिफारिश कर दो तो मेरा पेपर अच्छा हो जायेगा। यदि वो इतना सा काम कर देते तो क्या पहाड़ टूट जाता उन पर, लेकिन नहीं उनको मेरे परवाह तो है नहीं, कैसे मेरी मदद हो जाये, कैसे उसका बेटा…… तभी रमण ने ब्रेक लगाये)

रमण – “अरे यार! अब फिरसे खो गया? चल परीक्षा का समय हो गया।”

(रंजन मन ही मन सोच रहा था समय हो गया तो क्या हुआ नतीजा तो उसे मालूम है फ़ैल होना है पेपर में लिखेगा क्या कुछ भी तो नहीं आता। कब रंजन परीक्षा भवन में घुसा कब उसक��� सामने प्रश्न पत्र आय���� कब उसने उत्तर पुस्तिका में अपना नाम लिखा याद ही नहीं, उसका ध्यान तो तब भंग हुआ जब लेनमैन ने उससे प्रश्न किया)

लेनमैन – “तुम रंजन! रंजन भाटिया हो?”
“जी हाँ!” रंजन ने कहा।
लेनमैन – “तुम आर एस भाटिया के बेटे हो?” (रंजन ने हाँ में सर हिल दिया।)
लेनमैन – “मैं देख रहा हूँ पिछले 1 घंटे से तुम सिर्फ अपना नाम लिख कर बैठे हो, इसके अतरिक्त उत्तरपुस्तिका में कुछ भी नहीं लिखा।”
रंजन – “कुछ आता ही नहीं तो क्या लिखूं?”
लेनमैन – “भाटिया जी का मैं बहुत आदर करता हूँ, और तुम उनके बेटे हो तुम्हे इस तरह खाली उत्तरपुस्तिका छोड़ कर जाते हुए मैं नहीं देख सकूँगा।”

(लेनमैन ने इधर उधर से जुगाड़ कर रंजन का सारा पेपर करवा दिया। पेपर पूरा होते ही परीक्षा भवन से बाहर निकला तो फिर से पिताजी के साथ सुबह हुई घटना याद आ गयी, आज तो हद ही हो गयी थी दोनों बाप और बेटे में। काफी गरमा गरमी हो गयी थी दोनों के बीच रंजन का हाथ लगभग उठ ही गया था पापा पर वो तो माँ बीच में आ गयी थी, लेकिन परीक्षा भवन में हुई घटना के बाद रंजन को अपने पर ग्लानी हो रही थी और लेनमैन के कहे शब्द कानो में गूंज रहे थे – “भाटिया जी का मैं बहुत आदर करता हूँ, उनके बेटे को इस तरह खाली उत्तरपुस्तिका छोड़ कर जाते हुए मैं नहीं देख सकूँगा।” अब रंजन हैरान हो रहा था कि लेनमैन ने पापा के बारे में ऐसा विचार क्यू प्रकट किया, इसी उधेड़ बुन में वो घर पहुच गया। घर पहुच कर अभी कमीज भी नहीं उतारी थी कि पिताजी के ऑफिस से संदेशा आ गया कि पिता जी को दिल का दौरा पड़ा है, उनको एक प्राइवेट अस्पताल में ले गए हैं। रंजन तुरंत ही अपनी माँ को लेकर अस्पताल पंहुचा| अस्पताल पहुचते ही उसका माथा ठनक गया, उसको याद आया की ये तो वो ही चाम उतारू अस्पताल है जिसमे उसके मित्र के पिताजी को भर्ती करवाया था जब उनको अटैक आया था, इन लोगो ने पहले मोटी फीस भरवाई थी तब कहीं जाकर उनको हाथ लगाया था, उसको मालूम था पिताजी ने बैंक बॅलेन्स के नाम पर कुछ भी नही जोड़ रखा था, जो तुरंत यहाँ पर जमा करवाया जाये, इन्ही विचारो में खोया हुआ वह उस कमरे में पहुच गया जिस कमरे में पिताजी का इलाज हो रहा था, उसको देख पिताजी ने कुछ बोलना चाहा –

पिताजी – “मुझे माफ कर दो बेटा में उम्र भर तुम्हे रुपये का सुख नही दे पाया, तुम्हारी माताजी ने तो मेरे साथ गुजरबसर कर लिया क्यूंकि उसने कभी पैसे की ज्यादा जरूरत ज़ाहिर नही की, मेरे से जो बना उसी में गुजारा चला लिया| किन्तु मैं भूल गया तुम्हे पैसे ज्यादा जरूरत होती है, और मेरे पास पैसा है नही, इसलिये मुझे लगता है मेरे जीने का अब कोई हक नही है …..

(पिताजी ने इतना कहते ही प्राण त्याग दिये …….)

कमरे मैं सन्नाटा पसर गया, जितने भी लोग वहां पर उपस्थित थे, सभी आंखे नम थी, आंसू तो रंजन के भी निकल रहे थे किन्तु दिमाग अस्पताल के खर्च को कैसे भरा जायेगा ये ही सोच सोच कर परेशान था। कुछ देर में अस्पताल वालो ने अपनी कागजी खानापूर्ति कर ली और नर्स ने अस्पताल का बिल रंजन को थमाया तो रंजन के पैरों तले की जमीन खिसक गयी लगभग दो लाख के आस पास का बिल था, रंजन के माथे पर पसीना उभर आया उसने पसीना पोछने के लिए रुमाल निकाल कर पोछना शुरू भी नहीं किया था की तभी, डाक्टर साहब ने कहा –

डाक्टर – “बेटा जी, ये बिल तो सिर्फ अस्पताल की कागजी खानापूर्ति है आपको बिल भरने की जरुरत नहीं है, भाटिया जी के परिवार से इलाज का बिल भरवा कर मुझे नर्क में नहीं जाना है, आप भाई साहब के अन्तिम् संस्कार की प्रक्रिया को पूरा करो।”

(रंजन हैरान था एक ही झटके में डाक्टर ने अस्पताल का बिल ख़ारिज कर दिया, वहां पेपर में लाइनमैन ने बिना किसी स्वार्थ के पेपर पूरा करवा दिया और अब डाक्टर ने लगभग दो लाख का बिल … उसको अच्छी तरह मालूम है जब रमण के पिता जी का इलाज करवाया था तब एक एक पैसा भरने के बाद ही अस्पताल से छुट्टी हुई थी। पिताजी के शव को अस्पताल से घर लाया गया वहां पर लोगो का जमावड़ा भरपूर था गली से घर तक आने में बहुत समय गुजर गया था जिसे देखो वो ही उनके अंतिम दर्शन के लिए आ रहा था। रिश्तेदारों तक सुचना पंहुचा दी गयी थी, जब सभी रिश्तेदार इकट्ठे हो गए तो शव को संस्कार के लिए रामबाग के लिए ले जाने लगे। रस्ते में जिसको भी मालूम पड़ता की ये शव यात्रा भाटिया जी की है वो ही अपने काम धाम छोड़ कर शव यात्रा में शामिल हो जाता रामबाग पहुचते पहुचते शवयात्रा में शामिल लोगो की संख्या हजारों में हो गयी थी। इतने लोग लकड़ी देने वाले हो गए थे की उन लकडियो से लगभग दस और शवो का अंतिम संस्कार किया जा सकता था। शारीरिक रूप से रंजन पिताजी का अंतिम संस्कार कर रहा था किन्तु जब बची हुई लकडियो को देखा तो उसके दिमाग ने लकडियो की कीमत का अंदाजा लगाया। वह परेशान हो उठा, और मन ही मन कह उठा – “जाते जाते भी रुपयों की मोटी चोट दे गए पिताजी। डाक्टर ने तो न जाने क्यों अपनी फ़ीस को छोड़ दिया, किन्तु ये टाल वाला क्यों अपना हिसाब छोड़ेगा।” संस्कार के बाद जब रंजन लकड़ी की टाल वाले का हिसाब करने गया तो टाल वालें ने हिसाब के ग्यारह रूपये लिख रखे थे, रंजन ये कहा लकड़ी तो बहुत ज्यादा थी, आपका रुपया तो बहुत ज्यादा बनना चाहिए था। टाल वाले ने कहा नहीं बेटा! भाटिया जी के लिए तो ग्यारह रूपये भी बहुत ज्यादा ले रहा हूँ। मैं वैसे तो उनके अहसान को किसी भी रूप से चूका नहीं सकता, और मुफ्त में लकडिया दे कर तुम्हारे सम्मान को ठेस नहीं पंहुचा सकता। )

रंजन पिता की अचानक मौत से टूट सा गया था, दिल में वह इस मौत लिए अपने को ही जिम्मेदार मान रहा था, और सच भी ये ही था न उस दिन वह झगडा करता और न ही पिताजी को दिल का दौरा पड़ता। पिताजी के देहांत वाले दिन और उसके बाद हुई इन दो-तीन घटनाओ से रंजन का दिल तो कहता थे पिताजी में कुछ तो बात थी किन्तु दिमाग तुरंत उसको वर्तमान की दुनिया को दिखा देता था। पिता जी की तेरहवीं तक आने जाने वालो का तांता लगा रहा। रंजन का दिमाग हिसाब लगा रहा था एक तो पिताजी जी के देहांत के बाद कमाई का साधन बंद हो गया ऊपर से महीने का बजट ये आने जाने वाले लोग बिगाड़ देंगे। रिश्तेदारों से ज्यादा अनजान लोग रंजन को हिम्मत न हारने का धाडस बंधा रहे थे, और किसी भी मुसीबत में सिर्फ एक आवाज देने की बात कर रहे थे, उसके पिताजी की ईमानदारी, इंसानियत और मिलनसार स्वाभाव गुण गा रहे थे। उनकी बातो से लग रहा था जैसे उसके पिताजी ने न जाने उनपर कितना बड़ा कर्ज चढ़ा रखा था।

हवा के पंखो पर सवार हो वक्त उड़ा चला जा रहा था। पिताजी नहीं थे किन्तु उनके बाद माँ को पेंशन मिलती थी उतना ही पैसा पिताजी पहले भी घर खर्च चलने को देते थे। इसीलिए पिताजी के मृत्यु के बाद उनके जीवन में कुछ खास नहीं बदला। एक दिन किसी वजह से माँ और बेटे में बहस हो गयी –

रंजन – “माँ! पिताजी ने अपने जीवन में पैसा कमाया होता तो आज हमें इतना कुढ़ कुढ़ कर नहीं जीना पड़ता।”

माँ – “बेटा तुम्हारे पिता जी ने पैसा नहीं लोग कमाए हैं। ये अहसास मुझे तुम्हाते पिताजी के जाने के बाद ही हुआ है।”

रंजन – “मैं समझ नहीं पाया तुम्हारी बात को।”

माँ – “वक्त सब समझा देता है बेटा, जरुरत होती सिर्फ अपने आँख, कान और दिमाग को खुला रखने की।”

(रंजन की जब भी माँ से बहस होती तो माँ उसको किसी न किसी बहाने से चुप करवा देती और उसको मेहनत से पढने को कहती। माँ की बात तो वह पहले से ही मानता आया था, उसको खुन्नस थी तो सिर्फ पिताजी से और वो भी सिर्फ इसलिए की वह मलाईदार कुर्सी पर रहते हुए ही रुपया नहीं कमा पाए थे। वक्त बीतता गया और रंजन की पढाई पूरी हुई। रमण के साथ मिलकर वह प्रतियोगी परीक्षा की जोरो से तैयारी कर रहा था। वक्त पर दोनों ही ने परीक्षा दी और दोनों परीक्षा में पास हो तो गए किन्तु जिस पोस्ट के लिए उन्होंने परीक्षा दी थी उस पोस्ट की नौकरी पाने का मार्किट रेट बीस लाख रुपया चल रहा था। चारो और ये ही चर्चा था की जिन लोगो ने मेहनत से परीक्षा पास की है उसके बाद अब इस पोस्ट के लिए सबसे बड़ी योग्यता रुपया है। रमण के पिता जी ने जुगत लगा कर रास्ता निकाल लिया और पैसे का प्रबंध तो उनके पास था ही। आज फिर से रंजन की बहस माँ से हो गयी –

रंजन – “कुछ नहीं रखा माँ इस जीवन में मेहनत करो मेहनत करो मगर फिर भी रुपया योग्यता के आड़े आता ही है अब देखो रमण मुझसे बहुत कम नंबर से पास हुआ है किन्तु नौकरी उसको ही मिलेगी क्यूंकि उसके पिता जी ने भरपूर रुपया कम रखा है वो रमण के लिए नौकरी खरीद लेंगे, मेरे पास कुछ नहीं है मैं रह जाऊंगा बिना नौकरी के।”

माँ – “नहीं बेटा छोटा ना कर भगवान सब भली करेंगे।”

रंजन – “कमजोर लोगो का भगवान नहीं होता माँ, एक मौका दिया था भगवान ने पिताजी को रुपया कमाने का नहीं कमाया तो भगवान इसमें क्या करेंगे।”

माँ – “कोई बात नहीं बेटा तुम्हारे पिता जी ने रुपया नहीं कमाया तो क्या हुआ आदमी कमा रखे हैं।”

रंजन – “क्या आदमी कमा रखे हैं, आदमी कमा रखे है। मेरी समझ से परे है तुम्हारी ये पागलपन वाली बाते।”

(इंटरव्यू वाले दिन रमण सुबह सुबह आ गया था, रंजन अभी सो कर भी नहीं उठा था। माँ ने रंजन को उठाया )

माँ – “रंजन बेटा! उठ देख रमण आया है, आज तो देता इंटरव्यू है ना चल जल्दी उठ देर हो जाएगी नहीं तो।”

रंजन – “देर कैसी देर माँ, देर तो हो चुकी है ये नौकरी जिन लोगो को मिलनी थी वो तो उनको मिल चुकी है, मुझ जैसे कंगाल को कौन देगा ये नौकरी?”

माँ – “खेल ख़त्म होने से पहले ही हार नहीं मानते बेटा, तुम्हारा कर्तव्य है अपना कर्म पूरा करना, और इस समय तुम्हारा एक ही कर्म है अपना इंटरव्यू देकर आना। अपना कर्म पूरा कर, फल जो भी हो।”

(माँ के दबाव में रंजन बेमन से इंटरव्यू के लिए चला गया, वहां पर जितने भी प्रतियोगी थे ज्यादातर बड़े ही निश्चंत लग रहे थे, वहां पर चर्चा ये ही थी जो लोग लेने थे उनकी तो लिस्ट बन चुकी है, इंटरव्यू तो एक खानापूर्ति भर है। फिर भी लोग अपना नंबर आने पर अन्दर जाते और कोई दो मिनिट में तो कोई दस मिनिट में बहार आ जाता, किसी का चेहरा खिला हुआ होता तो कोई बडबड करता हुआ निकलता। इसी बीच रंजन का भी नंबर आया। वह अन्दर पंहुचा, अन्दर पांच लोग बैठे थे उन लोगो एक नजर उसको देखा और फिर उसकी योग्यता प्रमाणपत्रो को देखने लगे, फिर पहला सवाल आया –

पहला – तो तुम रंजन हो, आर एस भाटिया के सुपुत्र

रंजन – जी

पहला – क्या काम करते हैं तुम्हारे पिता जी

रंजन – जो वो अब इस दुनिया में नहीं हैं

(रंजन ने पूरा परिचय दिया और पिता जी के बारे में बतलाया उसकी बाते सुन कर एक बोल –

दूसरा – “अरे भाटिया जी तो बहुत ही नेक आदमी थे, बेटा तुम्हे तो अपने पर फक्र होना चाहिए जो तुम इतने महान आत्मा की सन्तान हो। भगवान भी अच्छे लोगो को धरती पर ज्यादा दिन रहने नहीं देता, न जाने ऐसे लोगो को अपने पास बुलाने की क्या जल्दी होती है उसको।”

(वह भाटिया जी की तारीफ करते करते थका नहीं, इस बीच उसने बाकि लोगों से इशारो ही इशारो में रंजन के बारे में जान लिया था प्रमाण पत्रों के लिहाज से रंजन खरा था इस नौकरी के लिए, सभी ने सहमती जतला दी थी, उसको नियुक्ति पत्र देते हुए –

तीसरा – “देखो रंजन जी, ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस पोस्ट के लिए लिस्ट आउट होने से पहले ही नियुक्ति पत्र किसी को दिया जा रहा हो। हम उम्मीद रखते हैं कि इस बारे में किसी से भी लिस्ट आउट होने से पहले किसी से भी जिक्र नहीं करेंगे, सिर्फ अपनी माँ को ये खुशखबरी दे सकते हो।”

दूसरा – “रंजन जी ये सब आपके पिताजी का ही प्रताप है जो आपको ये सोभाग्य प्राप्त हुआ है। उस महान आत्मा ने समाज पर बहुत बड़े कर्ज लाद रखे हैं, और समाज वक्त आने पर अपने कर्ज जरुर उतारता है”।

चौथा – “बिलकुल सच है तुम्हारे पिताजी ने लोग कमा रखे हैं लोग …

पांचवा – “हम उम्मीद रखते हैं तुम भी अपने पिताजी की रहो पर चल कर उनका नाम रोशन करो और ईमानदारी की जो मशाल उन्होंने जलाई थी उसको जलाकर रखो। तुम्हारे उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं हम सब”

(अब तो रंजन पर जैसे घड़ो पानी पड़ गया था वह कुर्सी से बड़ी मुशिकल से उठा और ढीले कदमो से बहार की ओर चल पड़ा। ……. )

– विजय बाल्याण
४ अक्तूबर २०१३

Tags:   

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply